तुलसीदास का पत्नी मोह

 तुलसीदास का पत्नी मोह


                                       

भक्ति रस में विभोर तुलसीदास को कौन नहीं जानता रामचरित्र मानस में राम के प्रति प्रेम उनकी की अनंत भक्ति को परिलक्षित करता है। हिंदी साहित्य के सिद्ध पुरुष गोस्वामी तुलसीदास का जन्म और जीवन दोनों ही अति रोचक रहा है। सावन मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि 30 जुलाई 1554 में उत्तर प्रदेश के राजापुर गांव में उनका जन्म हुआजन्म के दूसरे ही दिन उनकी माता हुलसी का देहांत हो गया | इसके पश्चात  जब उनका जन्म हुआ तो रोने की वजाय उनके श्रीमुख से राम नाम निकला,  फिर होना क्या था उनके घर का ही नाम रामबोला हो गया। माता हुलसी के निधन के बाद चुनिया नाम की दासी ने वर्षों तक रामबोले का पालन पोषण किया। इसके बाद चुनिया का भी देहांत हो गया चुनिया के देहांत के बाद रामबोला एकांत अनाथों जैसा जीवन जीने को मजबूर हो गएरामबोला की ऐसी स्थिति को देख गुरु नरहर्यानंद जी ने रामबोले को अपने साथ अयोध्या ले आए और रामबोले का नाम बदलकर तुलसीदास रख दिया गया।

तुलसीदास का विवाह व पत्नी मोह    तुलसीदास का विवाह भारद्वाज गोत्र के दीनबंधु पाठक की पुत्री रत्नावली से सन 1583 के जेष्ठ माह में कर दिया गया| रत्नावली बहुत ही सुंदर थी| उनकी सुंदरता आकर्षण से परिपूर्ण था। तुलसीदास का विवाहिक जीवन अति खूबसूरत था वह अपनी पत्नी रत्नावली से बेहद प्रेम और अत्यधिक मोहित थे। तुलसीदास का यह पत्नी प्रेम बहुत ही प्रचलित रहा है उनका प्रेम ऐसा  कि लोक-लाज की तमाम सीमा लांघ चुका था| जहां दुनिया-जहान  व मान-मर्यादा का कोई स्थान नहीं था। एक प्रकार से उनका गृहस्थी जीवन पत्नी प्रेम से परिपूर्ण था।
रत्नावली मिलन की चाह जगी   तुलसीदास की पत्नी मोह और उससे जुड़ी हुई एक कहानी बेहद ही प्रचलित है। तुलसीदास का विवाह तो हुआ परंतु अभी उनकी पत्नी का गौना बाकी था। ब्याह के बाद रत्नावली अपने बड़े भाई के साथ अपने मायके चली गई, इस प्रकार पत्नी का तुलसीदास से अलग होना तुलसीदास के लिए किसी वियोग से कम नहीं था| पत्नी से मिलन की चाह तुलसी की प्रतीक्षा का विध्वंस कर रहा था। एक दिन तुलसीदास के सब्र का बांध टूटा और वह रत्नावली से मिलने निकल पड़े| रत्नावली मिलन की चाह ऐसी की तेज वर्षा और अंधेरी रात का  सुध-बुध भी नहीं रहा। जब वह एक उफनती नदी के किनारे पहुंचे, तो उनको एक लाश भी लकड़ी का लट्ठा दिखाई दे रहा था। शव को लट्ठा समझकर उफनती हुई नदी, सहारे पार कर लिया। जब वे रत्नावली के घर के पास पहुंचे तो, घर से सटा एक वृक्ष जिससे एक सर्प लटक रहा था| उस समय वह सर्प भी उन्हें रस्सी दिखाई दे रहा था। वह सर्प को रस्सी समझ कर ऊपर चढ़ गए जब वह  रत्नावली के कमरे में दाख़िल हुए तब उनकी पत्नी उन्हें देख उन्हें लोक-लाज की दुहाई देते हुए उन्हें जाने को कहा, परंतु तुलसीदास रत्नावली को अपने साथ चलने के लिए निरंतर आग्रह करते रहे, बाद में रत्नावली बेहद क्रोधित मन से धिक्कारते हुए बोली 
                                            अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति !
                                               नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत
अर्थात् कि तुम मेरे इस हड्डी मांस के शरीर के प्रति जितना तुम्हारा प्रेम है, उसका आधा भी स्नेह तुम्हारा प्रभु राम के लिए होता तो तुम भवसागर पार कर लेते। तुलसीदास की इस प्रकार से अवहेलना ने उनकी दशा और दिशा दोनों ही बदल कर रख दी। इस अवेहलना के तत्पश्चात वह प्रभु श्री राम की भक्ति में ऐसे लीन हुए कि वह प्रभु राम के ही हो गए।

पत्नी का धिक्कार प्रभु से मिलनसार  कहते हैं कि किसी सिद्ध पुरुष के पीछे किसी स्त्री का बहुत बड़ा हाथ होता है यह बातें ठीक तुलसीदास के ऊपर बैठता है पत्नी द्वारा लज्जित होने के बाद तुलसीदास को ज्ञान की प्राप्ति हुई। लज्जित होने का परिणाम तुलसीदास की कामयाबी को दर्शाता है| उनके द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या 39 बताई जाती हैं। जिसमें सबसे बड़ा रामचरितमानस विश्वविख्यात ग्रंथ है, रामचरितमानस जैसे महाकाव्य की रचना के लिए संपूर्ण विश्व तुलसीदास का लोहा मानता है।


पत्नी के कड़वे बोल ने, प्रभु श्रीराम से मिलन कराया। एक पौराणिक मान्यता के अनुसार जब गंगा नदी से नहाकर तुलसीदास बाहर आते थे तब वे अपने साथ एक लोटा जल भर कर लाते थे और वह एक वृक्ष के नीचे डाल दिया करते थे| जिस पर एक प्रेत निवास करता था| एक दिन वह प्रेत तुलसीदास से बेहद प्रसन्न हुआ, और  कुछ मांग मांगने के लिए बोला, तुलसीदास प्रभु मिलन की चाह बताई, फिर प्रेत ने उनको हनुमान जी के आश्रय में जाने का सुझाव दिया, तुलसीदास ने हनुमान जी के आश्रय में जाने का निश्चय किया| हनुमान जी के आश्रय में जाने के बाद, उन्होंने तुलसीदास को साक्षात्कार किया और तुलसीदास को चित्रकूट के घाट पर जाने का मार्गदर्शन दिया| चित्रकूट के घाट पर प्रभु  दर्शन का आश्वासन दिया।
                                         चित्रकूट के घाट पर, भई संतन की भीर
                                         तुलसीदास चंदन घिसे, तिलक करे रघुवीर'





एक दिन जब तुलसीदास चित्रकूट के घाट पर चंदन घिस रहे थे तभी प्रभु श्रीराम ने अपने दर्शन  से अलंकृत किया। यह एक पत्नी के द्वारा लज्जा का परिणाम हीं था जो तुलसीदास को प्रभु से मिलन हुआ।


पत्नी प्रेम से मिली सफलता    तुलसीदास की पत्नी प्रेम ने प्रभु राम से मिलन कराने का कार्य किया| रामचरित्रमानस व अन्य महाकाव्य की रचना के लिए प्रेरित भी किया। तुलसीदास ब्रज और अवधी भाषा में विविध प्रकार के दोहे-चौपाई विधा का उपयोग करते हुए उन्होंने गीतावली, दोहावली, और कवितावली की भी रचना की। उनके अन्य महान रचनाओं में  बरवै रामायण, पार्वती मंगल, जानकी मंगल, हनुमान चालीसा, संकटमोचन हनुमानाष्टक की रचनायें एक स्त्री के कारण  मिलने वाली सफलता का प्रमाण देता है|

नारी को लेकर तुलसीदास के विचार  तुलसीदास द्वारा रचित एक दोहा:-

                                              ढोल गवार शुद्र पशु नारी |
                                             सकल ताड़न के अधिकारी ||१||

इस दोहे को लेकर अलग-अलग विचारकों मतभेद है। सकल ताड़ना और सकल तारन को लेकर कई विद्वानों में मतभेद पड़ते हैं| कई विद्वान तारना को दया-भाव  मानते हैं, तो वहीं  कुछ विचारक तारना शब्द को कष्ट-पीड़ा पहुचानें की दृष्टि से देखते हैं। नारी के प्रति गोस्वामी तुलसीदास का विचार अन्य दोहों से भी स्पष्ट होता है जैसे कि:-
                                             जननी सम जानहिं पर नारी ।
                                            तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे ।।

अर्थात् जो पुरुष अपनी पत्नी के अलावा किसी और स्त्री को अपने मां बहन जैसा समझता है, उसके हृदय में प्रभु निवास करते हैं| जो पुरुष अन्य स्त्री के साथ संबंध स्थापित करते हैं वह पाप के भागी बनते हैं, और उससे ईश्वर विमुख हो जाते हैं।।            
                                                      धीरज धर्म मित्र अरु नारी।
                                                    आपद काल परिखिअहिं चारी ||

इस दोहे का अर्थ है कि धीरज, धर्म, मित्र और पत्नी की परीक्षा विपत्ति काल के समय में ही की जाती है| मनुष्य के अच्छे समय में तो हर कोई साथ देता है परन्तु जो विपत्ति के समय में आपके साथ है वही आपका सबसे बड़ा साथी है। तुलसीदास के इस प्रकार के तमाम दोहे नारी सम्मान को दर्शाता है ।
तुलसीदास का अंतिम समय भी प्रभु की वंदना मेंगा रहा| सन 1623 सावन मास के महीने में वाराणसी के अस्सी घाट पर गंगा नदी के किनारे उनकी आत्मा परमात्मा में विलीन हो गई।







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राहुल कुमार 

Comments

  1. बहुत अच्छा ,लगे रहिये सर जी ।

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  2. तुलसीदास जी के संन्यास लेने के बाद उनकी पत्नी रत्नावली का क्या हुआ और कहां गई।

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