पंडिता रमाबाई द आइरन लेडी

पंडिता रमाबाई द आइरन लेडी


19वीं शताब्दी के गुलाम भारत में स्त्री समाज की दशा बेहद ही दैनीय थी, परंतु कुछ समाज सुधार जैसे राजा राममोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, दयानंद सरस्वती और पंडिता रमाबाई जैसे महान लोग नारी उत्थान और स्त्री अस्मिता की लड़ाई लड़ रहे थे। पंडिता रमाबाई मात्र एक ऐसी प्रख्यात विदुषी जो नारी अस्मिता की पहल में जुटी हुई थी। पितृसत्तात्मक व्यवस्था को लेकर उनका विरोध काफी ज्यादा व्यापक था | हम यह कह सकते हैं कि महिलाओं के अधिकार की लड़ाई के कवायद का परिणाम ही पंडिता रमाबाई के रूप में प्रदर्शित होता है। रमाबाई महिलाओं की पिछड़ी व कमजोर स्थिति से उभारने के लिए पूरी तरह समर्पित।

पंडिता रमाबाई का जीवन परिचयः-

पंडिता रमाबाई का जन्म 23 अप्रैल सन 1858 में कर्नाटक के गैंग मूल के जंगलों में हुआ था। उनके बचपन का नाम रामा डोंगरे था | उनके पिता आनंद शास्त्री की दो बेटियां थी परंतु दोनों बेटियों में कोई भेदभाव ना करते हुए उन्हें उन्होंने दोनों बेटियों को शिक्षा दीक्षा ग्रहण करने का निर्णय किया,  रमाबाई ने भी अपनी शिक्षा का सदुपयोग करते हुए संस्कृत की शिक्षा में महारत हासिल की, यही कारण था कि उनके नाम के आगे पंडिता शब्द का प्रयोग किया जाने लगा । पंडिता रमाबाई को वेद और संस्कृत का बहुत ही अच्छा ज्ञान था। जहां 19वी शताब्दी में बाल विवाह, विधवा उत्पीड़न, सती प्रथा जैसी कुरीतियों हावी थी। ऐसी स्थिति में महिलाओं की शिक्षा दीक्षा तो बहुत दूर की बात समझी जाती होगी, परंतु यह तमाम तरह की कुरीतियां पंडिता रमाबाई के हौसले को नहीं तोड़ पाई। वह 12 साल के अल्पायु में ही 20 हजार श्लोकों को कंठस्थ याद कर लिया था, पिता धार्मिक विचारों के थे परंतु वह महिलाओं के अधिकारों की बात हमेशा किया करते थे। 1877 में अकाल के कारण रामा बाई के पिता माता और उनकी छोटी बहन का देहांत हो गया अब परिवार में भाई और बहन रह गए थे। माता , पिता की मृत्यु के बाद वह अपने बड़े भाई के साथ कोलकाता चली गई।

पंडिता रमाबाई का विवाह विवादित रुख़ से

पंडिता रमाबाई का विवाह भी एक दिलचस्प मोड़ से गुजरा हुआ है। जब उन्होंने एक बंगाली युवक बिपिन बिहारी मेधावी से विवाह करने का निर्णय लिया तो कुछ समाज के रूढ़िवादी विचारधाराओं के लोगों ने उसका पुरजोर विरोध किया इस विरोध का सबसे बड़ा कारण यह था कि, पंडिता रमाबाई और बिपिन बिहारी की जाति एक नहीं थी , इस विरोध का प्रवाह ना करते हुए उन्होंने बिपिन बिहारी से विवाह किया विवाह के कुछ समय पश्चात वह असम सिलचर चले गए। जहाँ उन्होंने एक बच्ची को जन्म दिया जिसका नाम मनोरमा रखा गया।| पंडिता रमाबाई का यह विवाहित जीवन सुखद चल रहा था परंतु कुछ ही  वर्षों के पश्चात इस विवाहित जीवन को भी ग्रहण लग गया। और उनके पति बिपिन बिहारी का देहांत हो गया। पति के देहांत के बाद उनका मन सिलचर में नहीं लग रहा था यही कारण था कि वह अपनी पुत्री मनोरमा के साथ पुणे चली गई जहां उन्हें महादेव गोविंद राणा से मुलाकात हुआ जहाँ गोविंद राणा स्त्री शिक्षा और विधवाओं के अधिकार के  कवायद में लगे हुए थे ।

ठग्गू बाई की घटना सेवा सदन की स्थापना के लिए रमाबाई को प्रेरित किया

एक बार एक महिला जिसका नाम ठग्गू बाई था वह रमाबाई के घर भागते हुए पहुंची। वह महिला अपने आप को कुछ दुराचारी लोगों से अपने आपको बचती  बचाई रमाबाई के शरण में पहुंची थी। रमाबाई ने उस महिला से अपनी आपबीती बताने को कहा ! फिर वह महिला अपनी पूरी आपबीती रमाबाई को सुनाई कि, किस प्रकर से उसे  सामाजिक तिरस्कार का पात्र बनाया गया है। उस महिला ने बताया कि वह एक विधवा है जिसके कारण उसके ससुराल और मायके दोनों से तिरस्कृत कर दिया गया है। ससुराल वाले इसका दोहन करते हैं और मायके के लोग उसे अभागन और कुलक्षिणी के नाम से बुलाते हैं। ठग्गू  बाई की आपबीती रमाबाई को झकझोर कर रख दिया और उन्हें विधवाओं की दुर्दशा व मनोदशा पर सोचने को मजबूर कर दिया। देश में असंख्यात महिलाएं हैं, जिन्हें विधवा समझकर समाज से तिरस्कृत कर दिया जाता है। ठग्गू बाई  की घटना के बाद रमाबाई ने निश्चय किया कि वह ठग्गू बाई  जैसी महिलाओं को उनके लिए निरंतर कार्य करती रहेंगी जब तक कि उन्हें उनका आत्म सम्मान न मिल जाये। वह विधवाओं को गरिमापूर्ण जीवन, स्वावलंबी व आत्मा सम्मानित बनाने की कवायद में जुट गई। इस कार्य की पूर्ति के लिए वह इंग्लैंड प्रशिक्षण लेने चली गई। इंग्लैंड में जाने के कुछ समय पश्चात हीं व संस्कृत की प्रध्यापिका बन गई थी। बाद में वह अमेरिका चली गई जहां उन्होंने नई शिक्षा पद्धति का गहन अध्ययन किया। किंडरगार्टन पद्धति प्रणाली के अंग्रेजी पुस्तकों के आधार पर मराठी पुस्तकें तैयार की और उन पुस्तकों से मिलने वाली राशि को शारदा सदन  में लगाने का कार्य प्ररंभ की, परन्तु इन पुस्तकों की राशि शारदा सदन को चलाने के लिए पर्याप्त नहीं थी इस लिए वह अमरीकी जनता से सेवा सदन के लिए चंदा देने की अपील की, इस प्रकार  से चंदे की रक़म से शारदा सदन सुरुआत हुई, रमाबाई के अथक प्रयासों द्वारा  बहुसंख्यक विधवाओं स्वालंबी व्  आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास किया गया ।

पंडित रमा बाई  हिंदू धर्म के आलोचक  और विवेकानंद के साथ विवाद

इंग्लैंड  दौड़े के दौरान पंडिता रमाबाई ईसाई धर्म से बहुत ज्यादा प्रेरित हुई बाद में वह ईसाई धर्म में दीक्षित हो गई। हिंदू धर्म में फैली कुरीतियों से वह बहुत ही आहत थी | सती प्रथा और विधवा प्रथा जैसी कुरीतियाँ उन्हें कचोट रही  थी। यही कारण था कि वह हिंदू धर्म की कुरीतियों को एक शोषण के रूप में देखती थी। पंडिता रमाबाई को भारत की पहली लिबरल फेमिनिस्ट के रूप में भी जाना जाता है। पंडिता रमाबाई और स्वामी विवेकानंद के साथ भी एक छोटा सा  विवाद भी स्थापित होता है। रमाबाई ब्रिटेन दौरे के दौरान उन्होंने यह किताब लिखी जिसका नाम था द हाई कास्ट हिन्दू  विमेन जिसमें उन्होंने लिखा कि महिलाओं का हिंदू होना किसे बुरे परिणाम से कम नहीं है। उन्होंने उस किताब में यह भी लिखा कि किस प्रकार से धर्म की आड़ में बाल विवाह सती प्रथा, जातिवादी समस्या उत्पन्न होती है। उस समय स्वामी विवेकानंद को हिंदू धर्म के महान पक्षधर के रूप में देखा जाता था |  पंडिता रमाबाई के समय में ही स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका में हिंदू धर्म की अच्छाइयों को पुरजोर तरीके से प्रस्तुत किया था । ऐसे हालात में स्वामी विवेकानंद और  रमाबाई के विचारों में टकराव होना निश्चित था। 1883 में स्वामी विवेकानंद ने जब हिंदू धर्म से संबंधित अच्छाइयों को प्रस्तुत किया तो रमाबाई ने लिखा कि " मैं अपने पश्चिम की बहनों से गुजारिश करती हूं कि बाहर ही खूबसूरती से संतुष्ट ना हो, महान दर्शन की बाहरी खूबसूरती पढ़े-लिखे पुरुषों के बौद्धिक विमर्श और प्राचीन प्रतीकों के नीचे काली गहरी कोठरियां है इसमें तमाम महिलाएं और नीची जातियों का शोषण चलता रहता है" रामबाई के यह शब्द  किसी सुई की चुभन से कम नहीं थी | कुछ समय बाद स्वामी विवेकानंद ने एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने लिखा कि  "मिसेस बुल, मैं उन  स्कैंडल्स के बारे में सुनकर बहुत हैरान हूं जिसमें रमाबाई का सर्कल मुझे शामिल कर रहा है कोई भी आदमी अपनी तरफ से कितना भी कोशिश कर ले मगर कुछ लोग उसके बारे में बुरा ही बोलते हैं , शिकागो में मुझे रोज कुछ ना कुछ ऐसा सुनने को मिलता है| यह औरतें तों ईसाइयों से भी ज्यादा ईसाई है। स्वामी विवेकानंद और रमाबाई के बीच में इस प्रकार के शब्दों का  नोक झोंक  दो विचारों के टकराव को दर्शाते हैं। रमाबाई नारीवादी विचारक होने के कारण हिंदू धर्म में फैले बुराइयों का विरोध करती रही। पंडिता रमाबाई और स्वामी विवेकानंद के विचारों में आपसी मतभेद जरूर था परंतु उनके विचार अपने अपने जगह पर बिल्कुल सही थे।

रमाबाई के ऊपर धर्मांतर कराने का आरोप भी लगाया गया

एक रूढ़िवादी सोच और धर्म की आड़ में महिलाओं को दबाए जाने का विरोध निरंतर रमाबाई करती रहीं। एक पुस्तक भय नहीं खेद नहीं जो पंडिता रमाबाई के जीवन संघर्षों को प्रदर्शित करती है। जब वह अमेरिका से मुंबई आए तो उन्होंने विधवा दुर्दशा बाल विवाह जैसी कुरीतियों पर कड़ा प्रहार किया, रमाबाई के इस पहल से समाज के कुछ ठेकेदार संतुष्ट नहीं थे । वह निरंतर शारदा सदन पर प्रश्नचिन्ह गलते रहते। कुछ रूढ़िवादी कट्टर हिंदुत्व को मानने वाले लोगों ने यह प्रश्न चिन्ह लगाया कि शारदा सदन को विदेशी फंडिंग होती है| और यहां पर हिंदू विधवा महिलाओं का धर्मांतरण किया जाता है। पंडिता रमाबाई का यह स्पष्ट रूप से कहना था कि "कुछ विधवा  हिंदू महिलाएं ईसाई धर्म से प्रेरित जरूरत थी परंतु उन्हें किसी प्रकार से  धर्मांतरण के लिए उकसाया नहीं गया था। रमाबाई एक ऐसी सशक्त महिला थी जो समाज के ठेकेदारों को उन्हीं की भाषा में उत्तर देना जानती थी| रमाबाई यह चाहती थी कि शारदा सदन की महिलाएं पुरुषवादी विचारधाराओं से मुक्त हों, आर्थिक रूप से स्वावलंबी बने तथा महिला समाज रूढ़िवादी विचारधारा से  मुक्त हो। परंतु रमाबाई का यह विचार कुछ ब्राह्मणवादी विचारकों के खटकता था | यही कारण था कि रामबाई के ऊपर हिन्दू महिलाओं  को भटकाने और ईसाई धर्म मनवाने के आरोप लगानें का प्रयास किया गया। परंतु यह तमाम प्रयास पंडिता रमाबाई के हौसलों को बांध नहीं पाए। वह तो गुलाम भारत की आजाद महिला थी, उनके  विचार सदैव स्वतंत्रता रहे, ऐसे हालात में उनको बंधन स्वीकार कैसे हो सकता था । महिला सशक्तिकरण और पुरुष प्रधान समाज का पुरजोर विरोध कर महिलाओं को न्याय के मुख्यधारा में लाने का प्रयास से रमाबाई को एक महान नारीवादी विचारक  बनाता है। पंडिता रमाबाई के अथक प्रयास पूरे विश्व में विख्यात है।  वह सेप्टिक ब्रोंकाइटिस से पीड़ित थीं फिर भी सामाजिक बुराइयों से लड़ती रहीं  5 अप्रैल, 1922 को उनका निधन हो गया। अभी भी उनकी याद में यूरोप के चर्च में 5 अप्रैल को  फीस्ट डे  मनाया जाता है। हम यह कह सकते हैं कि पंडिता रमाबाई का विचार गुलाम भारत में स्वतंत्र विचार की नींव रखता है, और उन्हें आयरन लेडी की संज्ञा प्रदान करता है


यह डाक टिकेट भारत सरकार द्वारा पंडिता रमाबाई की याद और उनके स्वतंत्र विचरों को दर्शाता है| उनकी  नारीवादी विचार विश्व में आज भी नारीवादियों के लिए आदर्श वक्य का कार्य करता है| पंडिता रमा बाई आज भी महिला समाज के आदर्श है| उनका मत न दैन्यं न च पलायनम् के मत को दर्शाता है| 

Comments

  1. पंडिता रमाबाई पर बहुत सुंदर आलेख है। धन्यवाद साथी।

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    1. बहुत क्रांतिकारी आलेख।

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  2. पंडित रमाबाई के बारे में बहुत ही सुंदर आलेख प्रस्तुत किया है आपने ।इसमें रमाबाई के संपूर्ण जीवन का वृतचित्र प्रस्तुत किया गया हैं।

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  3. गागर में सागर ,दोस्त।

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  4. मनुवादी सामंतवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था को चुनौती देने वाली इस विद्रोही स्त्री पंडिता रमाबाई को मेरा नमस्कार!

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