चाणक्य भारत के महान अर्थशास्त्री, राजनीति के ज्ञाता मानें जाते हैं. वे बचपन से ही अन्य बालकों से भिन्न थे. उनके तार्किकता का कोई जवाब नहीं था. चाणक्य को बचपन से ही वेद पुराणों में बहुत रूचि थी.
इतिहास में उनका नाम एक कुशल नेतृत्वकर्ता व बड़े रणनीतिकारों में शामिल है.
इनके सर्वगुणसंपन्न होने की ही वजह से ही इनको अनेक नामों से पुकारा जाता है, जिसमें कौटिल्य, विष्णुगुप्त, वात्स्यान, मल्ल्नाग व् अन्य नाम शामिल हैं. इन नामों के पीछे भी एक बड़ी कहानी है. ये कहानी इनके प्रतिशोध से जुड़ी है
मगर, क्या आप जानतें है कि इनके पिता की मौत ही चाणक्य के प्रतिशोध की वजह बनी.
ऐसे में हमारे लिए इनके प्रतिशोध से जुड़ी कुछ रोचक बातों के बारे में जानना दिलचस्प होगा...
पिता की हत्या से चाणक्य ने धनानंद के विरुद्ध लिया प्रतिशोध
चाणक्य का जन्म 350 ई.पू. में तक्षशिला में हुआ था. उनके पिता चणक मुनि एक महान शिक्षक थे. इनके पिता ने बचपन में उनका नाम कौटिल्य रखा था. एक शिक्षक होने के नाते चणक मुनि अपने राज्य की रक्षा के लिए बेहद चिंतित थे.
शायद यही कारण था कि, चणक क्रूर राजा धनानंद की गलत नीतियों के खिलाफ थे. उन्होंने अपने मित्र अमात्य शकटार के साथ एक राजा के विरुद्ध एक रणनीति बनाई. इसके बाद वे राजा धनानंद को सत्ता से उखाड़ फेंकने की प्रतिज्ञा ले ली.
लेकिन, जब इनकी इस योजना का पता धनानंद को लगता है. तो ऐसे में वो चणक को कैद करने का हुक्म दे देता है.
फिर, चणक पर राजद्रोह का आरोप लगाते हुए सिर कलम करने का आदेश दे दिया. उसकी क्रूरता का ये आलम था कि, चणक के कटे सिर को राज्य के मुख्य चौराहे पर लटका दिया गया. पिता की मौत से चाणक्य को गहरा दुःख हुआ.
नन्हें कौटिल्य बिलकुल बेसहारा हो चुका था. नन्हां बालक कौटिल्य अपने आपको किसी तरह संभालता है और पिता के कटे हुए सिर के साथ उनका दाह संस्कार करता है. इसके बाद कौटिल्य ने अपने हाथों में पवित्र गंगा जल लेकर शपथ खता है कि, "जब तक धनानंद के वंश का नाश नहीं देता, तब तक पका हुआ भोजन ग्रहण नही करूँगा" चाणक्य की कड़ी प्रतिज्ञा राजद्रोह की ओर संकेत कर रहा था.
हालांकि, उनको इस बात का भी डर था कि कहीं क्रूर राजा उन्हें भीं न मरवा दे. ऐसे में वे अपना घर बार छोड़कर जंगल की ओर चल पड़े. चाणक्य जंगल में भागते-भागते थक कर मुर्छित अवस्था में पहुँच गये.
तभी जंगल के मार्ग से एक संत गुजर रहे थे. उन्होंने मुर्छित अवस्था में चाणक्य को देखा. उन्होंने उस बालक को उठाकर उनका नाम पूछा. चाणक्य ने धनानंद के डर से उन्हें अपना नाम विष्णुगुप्त बताया.
उस बालक की अवस्था को देख संत को दया आ गई. वे चाणक्य को अपने साथ ले गये. उन्होंने ही चाणक्य को शिक्षा-दीक्षा दिया. अब कल का कौटिल्य आज का विष्णुगुप्त बन चुका था.
उन्होंने जल्द ही अपनी मेहनत और लगन से उच्च शिक्षा प्राप्त कर ली. बाद में उनकी निपुणता को देखते हुए उन्हें तक्षशिला का शिक्षक बना दिया गया. उस समय तक्षशिला पाकिस्तान के रावलपिंडी जिले में था.
धनानंद के खिलाफ बनाई योजना और...
शिक्षक के पद पर रहते हुए विष्णुगुप्त अपनी बुद्धिमानी व कुशलता से पूरे तक्षशिला में ख्याति प्राप्त कर ली. उन्हें एक प्रकांड विद्वान की दृष्टि से देखा जाने लगा था. वहां के लोग उनकी बातों से बहुत प्रभावित रहते थे.
इसी बीच सिकंदर ने पोरस के राज्य पर आक्रमण करते हुए उस पर अपना कब्ज़ा कर लिया. हालांकि, बाद में सिकंदर पोरस की किसी बात से प्रभावित होकर उसे उसका राज्य वापस कर देता है.
मगर, सिकंदर ने आक्रमण के दौरान काफी तबाही मचाई थी. इस युद्ध में पोरस को अधिक जान-माल का नुकसान हुआ था. सिकंदर के इस विनाशक तांडव से चाणक्य भली-भांति परिचित थे. इसी कड़ी में दिलचस्प है कि, भारत पर अपना कब्ज़ा करने के नियत से सिकंदर अब तक्षशिला की ओर बढ़ चुका था. ऐसे में वे मगध चले गए. सिकंदर के भय से चाणक्य को राज्य की चिंता सताए जा रही थी.
शायद यही करण था कि वे दुश्मन धनानंदके दरबार में बिन बुलाये मेहमान की तरह पहुंच जाते है. वहां पहुचकर वे राज्य की दयनीय स्थिति का स्मरण करते हैं. इसके बाद वे राजा धनानंदको सिकंदर के भारी उत्पात से आगाह करते हैं. वे राजा को बताते है कि महाराज दुश्मन मगध साम्राज्य कीओर बढ़ता आ रहा है, मगर भोग विलास में डूबा धनानंद उनकी एक बात नहीं सुनी बल्कि उल्टा उन्हीं को तिरस्कृत कर देता है.
पिता के हत्यारे से तिरस्कृत होना चाणक्य के लिए असहनीय बात थी. ऐसे में चाणक्य का राजा के प्रति और क्रोध उत्पंन हो जाता है. ऐसे में उनके प्रतिशोध की ज्वाला भड़क उठती है. वे दोबारा धनानंद से बदला लेने के लिए प्रतिज्ञा लेते है.
चाणक्य कसम खाते कि जब तक बदला पूरा नहीं हो जाता, तब तक मैं अपनी शिखा को नहीं बांधूंगा.
इसके बाद वो अपने पिता के मित्र अमात्य शकटार से मिलते हैं. वे उनके साथ राज्य में हो रहे अनैतिक कार्यों को लेकर मंत्रणा करते हैं. शकटार उनको बताते है कि राज्य की जनता धनानंद की गलत नीतियों से बहुत त्रस्त हो चुकी है. जनता से जबरन कर वसूला जा रहा है. इन बातों से चाणक्य को गहरा दुःख पहुँचता है. ऐसे में दोनों धनानंद के शासन को उखाड़ फेंकने का संकल्प लेते हैं.
चाणक्य शकटार से कहते हैं कि इस साम्राज्य को चलाने के लिए एक ऐसे युवक की ज़रुरत है, जिसमें राजा बनने के सभी गुण मौजूद हो. तब शकटार उन्हें धनानंदके दरबार में काम करने वाली एक दासी के बारे में बताता है, जिसका नाम मुरा था. उस दासी को भी धनानंद ने तिरस्कार करके दरबार से बाहर फेंकवा दिया था. उसी दासी का एक पुत्र चन्द्रगुप्त मोर्य है, जिसमें शासक बनने के सभी गुण मौजूद हैं.
चन्द्रगुप्त ने पूरा किया चाणक्य का प्रतिशोध
ऐसे में चाणक्य ने चन्द्रगुप्त से मिलने की इच्छा जताई. फिर, दोनों चन्द्रगुप्त के घर जाते है. वे उनकी मां से मिलते हैं. चाणक्य चन्द्र गुप्त की माँ से कहते है कि आपके पुत्र में एक राजा बनने योग्य है. इस बालक में एक राजा के सम्पूर्ण गुण दिखाई देते हैं. उनकी माँ चाणक्य की बातों से सहमत होती हैं. चाणक्य चन्द्रगुप्त को अपने साथ आश्रम में ले आते हैं.
वे उन्हें उच्च शिक्षा देना प्रारंभ कर देते है.चाणक्य उनको धनानंदसे बदला लेने के लिए हर प्रकार से तैयार करते हैं.
इसी कड़ी में दिलचस्प यह था कि चाणक्य ने चन्द्रगुप्त की शक्तियों को बढ़ाने के लिए धर्म का सहारा लेते हैं. वे इस बार फिर अपना नाम बदलकर 'वात्स्यान मुनि' बन जाते हैं. धर्म की आड़ में चाणक्य लोगों को अपना प्रवचन सुनाते और युवाओं को चंद्रगुप्त की सेना में जाने का सुझाव भी दिया करते थे. कुछ ही समय में चंद्रगुप्त की एक मजबूत सेना तैयार हो जाती है.
इसी बीच एक अमात्य गुप्तचर द्वारा चाणक्य की साजिश का पता धनानंद को लगता है. परन्तु अब बहुत देर हो चुकी थी. चाणक्य द्वारा तैयार किये गए चक्रव्यूह में धनानंद पूरी तरह से फंस चुका था.
चन्द्रगुप्त अपनी बहादुर सेना के साथ मगध पर आक्रमण करने के लिए तैयार था. ऐसे में भोग-विलास में डूबे धनानंद को कुछ समझ नही आ रहा था. वह चाणक्य की रणनीति के विरुद्ध कोई फैसला लेने में असमक्ष था. उनकी नीतियाँ धनानंद के गले की फांस बन चुकी थी. ऐसे में चाणक्य इस वक़्त को भुनाते हैं और चन्द्रगुप्त को मगध पर आक्रमण करने का हुक्म दे देते हैं.
उनकी आज्ञा का पालन करते हुए चन्द्रगुप्त मौर्य मगध पर आक्रमण कर देते हैं. चन्द्रगुप्त ने अपने कुशल नेतृत्व में धनानंद समेत उसके पूरे वंश को मौत के घाट उतार देते हैं. इस तरह चंद्रगुप्त चाणक्य के प्रतिशोध को पूरा करते हैं.
चाणक्य ने अपनी कुशल कूटनीति से धनानंद से बदला लेने में कामयाब हो जाते हैं. इसके साथ ही एक क्रूर और अत्याचारी शासक का अंत हो जाता है. तो ये थी चाणक्य के प्रतिशोध से जुड़ी एक कहानी के कुछ पहलु. अगर आपके पास भी इससे जुड़ी कोई जानकारी है, तो नीचे दिए कमेंट बॉक्स में जरूर बताएं.
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